बुद्धि का विकास मानव के अस्तित्व का अंतिम लक्ष्य होना चाहिए - बी. आर. अम्बेडकर

हमें ऊर्जा क्यों चाहिए ?



मनुष्य को अपने दैनिक कार्यों के निष्पादन और शरीर के तापमान को सन्तुलित रखने के अलावा चयापचय के लिए और विकास के लिए पर्याप्त मात्रा में ऊर्जा की आवश्यकता होती है। नेशनल न्यूट्रीशन मॉनिटरिंग ब्यूरो द्वारा किये गये शोध के अनुसार भारत में 50 प्रतिशत पुरुष एवं महिलाओं में ऊर्जा की दीर्घ कालीन कमी पायी जाती है।
  • प्रतिदिन होनेवाली ऊर्जा के खर्च पर ऊर्जा की आवश्य़कता निर्भर करती है। य़ह मनुष्य की उम्र, शरीर के वजन, शारीरिक कार्य का स्तर, विकास तथा शारीरिक स्थिति पर भी निर्भर करती है। भारत में 70 से 80 प्रतिशत कैलोरी खाद्य पदार्थ जैसे, दाल, बाजरा और कंद में मिलते हैं।
  • बच्चों एवं किशोरों में प्रतिदिन खर्च होनेवाले ऊर्जा का 55 से 60 प्रतिशत भाग  कार्बोहाइड्रेट से प्राप्त किया जा सकता हैं।
  • स्वस्थ वृद्धि के लिए किशोरों में अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। 16 से 18 वर्ष के उम्र के बालक और बालिकाओं को क्रमश: 2060 किलो और 2640 कैलोरी की आवश्यकता होती है।
  • गर्भावस्था के दौरान भ्रूण के विकास और गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए अधिक मात्रा में ऊर्जा की आवश्यकता होती है।
  • ऊर्जा की कमी से कुपोषण और अधिकता से मोटापा हो सकता है।
ऊर्जायुक्त भोजन

  • अनाज, दाल, बाजरा, कंद, सब्जी से उत्पन्न होनेवाले तेल, घी, मक्खन, तेल उत्पन्न करनेवाले बीज, चीनी और गुड़।
  • अनाज से हमें काफी मात्रा में ऊर्जा मिलती है, इसलिए हमें अनाज का अत्यधिक सेवन करना चाहिए।
  • कठोर और रुखड़े अनाज जैसे- ज्वार, बाजरा और रागी सस्ते और ऊर्जा प्रचुर होते हैं।  
खाद्य पदार्थ ऊर्जा (किलो कैलोरी/100 ग्राम खाने योग्य प्रोटी
चावल      
गेहूं का आटा
ज्वार
बाजरा
रागी
मकई


 345
341
349
361
328
342



मोटापा एवं पोषाहार

मोटापा शरीर की वह स्थिति है, जिसमें शरीर के उत्तक में अत्यधिक वसा जमा हो जाती है और यह शरीर के वजन को 20 प्रतिशत तक बढ़ा देती है। शरीर पर मोटापे का काफी बुरा प्रभाव पड़ सकता है, और यह असामयिक मौत का कारण भी बन सकता है। मोटापा खून में वसा की अधिकता, उच्च रक्तचाप, हृदय संबंधी रोग , मधुमेह, पथरी एवं कुछ प्रकार के कैंसर जैसी बीमारियों की ओर ले जाती है।

कारण

(1) अधिक खाना खाना और कम शारीरिक कार्य करना मोटापे का प्रमुख कारण है।
इसके अलावा जीन के कारण भी आप मोटापे का शिकार हो सकते हैं ।

(2) ऊर्जा का सेवन एवं ऊर्जा के उपयोग के बीच का असन्तुलन मोटापे एवं शरीर के वजन मे वृद्धि का कारण है।

(3) इसके अलावा अत्यधिक मात्रा में वसायुक्त भोजन करने से भी मोटापा जैसी समस्या होती है।
कसरत में कमी एवं स्थिर जीवनयापन मोटापे का प्रमुख कारण है।

(4) जटिल व्यवहार एवं कुछ मनोवैज्ञानिक कारणों से लोग ज्यादा भोजन करने लगते हैं, इस कारण भी मोटापा की समस्या उत्पन्न हो जाती है।

(5) शरीर में भोजन के सही तरीके से पाचन नहीं होने की स्थिति में भी ऊर्जा का कम उपयोग होता है, जिससे शरीर में चर्बी जमा होने लगती है।

(6) बचपन एवं किशोरावस्था का मोटापा व्यस्क होने पर आपको मोटा बना सकता है।

(7) औरतों मे गर्भावस्था एवं माहवारी के बाद मोटापा बढ़ जाता है ।

शरीर का सही वजन -

मनुष्य के शरीर का वजन उसकी लंबाई और शारीरिक संरचना के अनुरूप होनी चाहिए। वजन मापने का सबसे सरल साधन है बॉडी मास इन्डेक्स।  इसके द्वारा शरीर के वजन (किलो ग्राम में) को लम्बाई (मीटर ) के वर्ग से भाग करके निकाला जा सकता है ।

वजन कैसे कम करें?
तला खाना कम खायें।
अधिक मात्रा मे फल एवं सब्जी खायें।
रेशायुक्त खाद्य पदार्थ जैसे चना एवं अंकुरित चना का सेवन करें।
शरीर के वजन को संतुलित रखने के लिए रोजाना कसरत करें ।
धीरे परन्तु लगातार वजन में कमी करने की कोशिश करें।
उपवास से शारीरिक नुकसान हो सकता है।
विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थ का सेवन करना चाहिए, जिससे हमारी शारीरिक क्षमता संतुलित रहे।
छोटे-छोटे अंतराल पर  थोड़ा-थोड़ा खाना चाहिए।
खाने में कम चीनी लें, अत्यधिक चर्बीवाले भोज्य पदार्थ का सेवन न करें एवं अल्कोहल से बचें।
कम वसावाले दूध का सेवन करें।
वजन कम करनेवाले खाद्य पदार्थों में प्रोटीन की मात्रा अधिक होनी चाहिए और कार्बोहाइड्रेट एवं चर्बी की मात्रा कम होनी चाहिए।
 

प्‍लास्टिक के थैले - पर्यावरण के लिए खतरा


 
प्‍लास्टिक क्‍या है?
प्‍लास्टिक, पॉलिमर्स हैं जो कि ऐसे बडे़ अणु होते हैं जिनमें मोनोमर्स नामक रिपीटिंग यूनिट्स होती हैं। प्‍लास्टिक बैग की जब बात की जाती है तो रिपीटिंग यूनिट्स एथिलीन होती हैं। जब एथिलीन अणुओं को पॉलिथिलीन बनाने के लिए पॉजिमराइज्‍ड किया जाता है तो वे कार्बन अणुओं की एक लंबी श्रृंखला बनाते हैं। इनमें प्रत्‍येक कार्बन दो हाइड्रोजन अणुओं के साथ जुड़ा होता है।
 
 प्‍लास्टिक के थैले किसके बनते हैं?
 
प्‍लास्टिक के थैले पॉलिमर्स के तीन प्रकारों में से एक द्वारा बनती हैं - पॉलिथिलीन- हाई डेंसिटी पॉलिथिलीन (एचडीपीई), लो डेंसिटी पॉलिथिलीन (एलडीपीई), या लीनियर लो-डेंसिटी पॉलिथिलीन (एलएलडीपीई)। किराने की थैलियां अधिकतर एचडीपीई द्वारा बनाई जाती हैं और थैले ड्राई क्‍लीनर एलडीपीई से। इन दोनों में सबसे बड़ा अंतर पॉलिमर श्रृंखला की ब्रांचिंग की डिग्री का है। एचडीपीई और एलएलडीपीई में रैखिक अशाखित श्रृंखला होती हैं वहीं एलडीपीई शाखित होती हैं।

क्‍या प्‍लास्टिक स्‍वास्‍थ्‍य के लिए हानिकारक है?
प्‍लास्टिक आंतरिक रूप से विषाक्‍त या हानिकारक नहीं है लेकिन प्‍लास्टिक की थैलों को कार्बनिक और अकार्बनिक योज्‍यों, जैसे कलरेंट्स और पिगमेंट्स, प्‍लास्टिसाइजर्स, एंटीऑक्‍सीडेंट्स, स्‍टैबलाइजर्स और धातुओं से बनते हैं।

कलरेंट्स और पिगमेंट्स औद्योगिक एजोडाइज है जिन्‍हें प्‍लास्टिक के थैलों को चमकीला रंगने के लिए प्रयोग किया जाता है। इनमें से कुछ कैंसर उत्पन्न करने वाले कारक होते हैं और यदि इनमें खाद्य पदार्थों को रखा जाए तो ये खाद्य पदार्थों को दूषित कर देते हैं। पिगमेंट्स में मौजूद भारी धातु, जैसे कैडमियम भी स्‍वास्‍थ्‍य के लिए हानिकारक साबित होते हैं।

प्‍लास्टिसाइजर्स, लो वॉलेटाइल प्रकृति के आर्गेनिक एस्‍टर्स हैं। ये भी खाने के सामान को खराब कर सकते हैं। प्‍लास्टिसाइजर्स भी कैंसर उत्पन्न करने वाले होते हैं।
एंटीऑक्‍सीडेंट्स और स्‍टैबलाइजर्स अकार्बनिक और कार्बनिक रसायन होते हैं जो विनिर्माण की प्रक्रिया में तापीय विघटन से बचाव करता है।

कैडमियम और लेड जैसे टॉ‍क्‍सिक धातुओं को जब प्‍लास्टिक के थैले बनाते समय प्रयोग किया जाता है तो वे भी उन थैलियों में रखे खाने वाली चीजों को खराब करता है। यदि कैडमियम का सेवन कम मात्रा में नियमित रूप से किया जाए तो उससे उल्‍टी होने या दिल के बड़े होने की समस्‍या हो सकती है। लेड से दिमाग के ऊतकों को क्षति पहुंचती है।

प्‍लास्टिक के थैलों से होने वाली समस्‍याएं
 
प्‍लास्टिक के थैलों को यदि अच्‍छी तरह नष्‍ट न किया जाए तो वे नालियों को बंद कर सकती हैं और पर्यावरण प्रदूषित होता है व पानी से होने वाली बीमारियां भी फैल सकती है। पुनर्चक्रित/रंगीन प्‍लास्टिक के थैलों में कुछ विशेष रसायन होते हैं, जिनका रिसाव जमीन में हो सकता है और मिट्टी और मटमैले पानी को दूषित कर सकते हैं। यूनिट्स पर्यावरण के अनुकूल तकनीक वाली नहीं हैं इसलिए पुनर्चक्रण की प्रक्रिया के दौरान पैदा होने वाले विषाक्‍त धुंए के कारण पर्यावरण की समस्‍याएं पैदा हो सकती है। कुछ प्‍लास्टिक की थैलियों में यदि भोजन पड़ा रह जाता है या जो थैलियां कूड़े-कचरे में मिल जाती हैं तो उन्‍हें जानवर खा जाते हैं। इससे नुकसानदायक परिस्थितियां पैदा हो जाती हैं। नॉन-बायोडिग्रेडेबल और अभेद्य प्रकृति होने के कारण प्‍लास्टिक को यदि मिट्टी में दबाया जाए तो उसके कारण भू-जल स्‍तर फिर से सामान्‍य हो पाती है। प्‍लास्टिक उत्‍पादों को बेहतर बनाने और इसकी प्रकृति को सुधारने के लिए एडीटिव्‍स और प्‍लास्टिसाइसर्स, फिलर्स, फ्लेम रिटार्डेंट्स और पिगमेंट्स का आमतौर पर प्रयोग किया जाता है जो कि स्‍वास्‍थ्‍य पर बुरा असर डालते हैं।
प्‍लास्टिक के कचरे के प्रबंधन के लिए योजनाएं
पतली प्‍लास्टिक की थैलियों की कीमत कम होती है और उनका पृथक्‍करण काफी मुश्किल होता है। यदि प्‍लास्टिक के थैलों की मोटाई अधिक रखी जाए तो वे महंगी होंगी और उनका प्रयोग भी अधिक समय तक किया जा सकेगा। कचरा प्रबंधन और निपटान प्रणाली में प्‍लास्टिक मैनुफ्रैक्‍चरर एसोसिएशन और कचरा उठाने वालों को भी शामिल किया जा सकता है।

प्‍लास्टिक की थैलियों, पानी की बोतलों, प्‍लास्टिक के पाउचों से पैदा होने वाले कचरे का प्रबंधन काफी समय से ठोस कचरा प्रबंधन नगरपालिका के लिए चुनौती बना हुआ है। कई पहाड़ी राज्‍यों (जम्‍मू-कश्‍मीर, सिक्किम, पश्चिम बंगाल) में पर्यटन क्षेत्रों में प्‍लास्टिक की थैलियों और पानी की बोतलों के प्रयोग पर रोक लगाई गई है। हिमाचल प्रदेश में राज्‍य सरकार ने मंत्रिमंडल के निर्णय द्वारा एचपी नॉन-बायोडिग्रेडेबल गार्बेज (कंट्रोल) कानून, 1995 के अंतर्गत 15.08.2009 से राज्‍य भर में प्‍लास्टिक के प्रयोग पर प्रतिबंध लगा दिया है।
केंद्रीय सरकार ने भी देश भर में प्‍लास्टिक से पर्यावरण को हो रहे नुकसान को रोकने के लिए एक समिति और टास्‍क फोर्स बनाई, जिसने अध्‍ययन किया और सिफारशें तैयार कीं।

पर्यावरण और वन मंत्रालय ने रिसाइकल्‍ड प्‍लास्टिक्‍स मैनुफैक्‍चर और यूसेज रूल्‍स 1999 को जारी किया और 2003 में इसे पर्यावरण (संरक्षण) कानून, 1986 के अंतर्गत उसे संशोधित किया गया। इसके अंतर्गत प्‍लास्टिक की थैलियां और कंटेनर्स का प्रबंधन करने की योजना बनाई गई। द ब्‍यूरो ऑफ इंडियन स्‍टैंडर्ड्स (बीआईएस) ने बायोडिग्रेडेबल प्‍लास्टिक्‍स के दस मानक तय किए हैं।
प्‍लास्टिक के विकल्‍प
 
प्‍लास्टिक के थैलों के स्‍थान पर जूट या कपड़े के थैलों का प्रयोग किया जा सकता है और इसके प्रयोग को प्रचलित किया जा सकता है। हालांकि, इस बात का ध्‍यान रखा जाना चाहिए कि कागज के पैकेटों को प्रयोग भी कम किया जाना चाहिए क्‍योंकि इनके अधिक प्रयोग से पेड़ों की कटाई में वृद्धि हो सकती है। उचित यही होगा कि बायो-डिग्रेडेबल प्‍लास्टिक के थैलों का ही प्रयोग किया जाना चाहिए। इस पर अध्‍ययन जारी है कि किस प्रकार बायोडिग्रेडेबल प्‍लास्टिक के थैले बनाए जाएं।